उलझन (uljhan)

ऐ आज…..

तू मेरे कल से निकाल दे मुझको,

हर छुटता लम्हा,
काफ़िर बनाता है कल को…..
तांडव है मन में, 
मुख पे नदियों की धारा है,
अंधकार में उलझी है कस्ती,
न जाने किस ओर किनारा है….

चमक देख आसमानी,
उस ओर  दौड़ जाता हूँ,

मगर जिस राह पे जाता हूँ,
खुदको शून्य ही पता हूँ……..
तेरे बीत जाने पर भी, ऐ आज! 
वो आज सामने आ जाता है,
कभी कर्मो की कटु-परछाई-सा,
तो कभी मर्मो-से लिखी रक्त रंजित,
अनचाही गहराई-सा …….

गगन धर के माथे पे, ऐ आज!
तेरी अगुवाई की थी,
नहीं जानते थे, नासमझ मन ने,
कल को विरासत में, रूश्वाई दी थी…….
ऐ आज!…… जरा रोक ले उसको,
मेरे कल को बिगाड़ने की,
वो साजिसे बनता है,
वो प्रकाश की मरीचिका गढ़,
मुझे अपने पास बुलाता है……………

राकेश कुमार वर्मा (आवारा बंजारा)

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